गुरुवार, 22 मई 2008

मैं न चाहता युग युग तक

पृथ्वी पर जीना

पर उतना जी लूँ

जितना जीना सुंदर हो

मैं न चाहता जीवनभर

मधुरस ही पीना

पर उतना पी लूँ

जिससे मधुमय अन्तर हो

मानव हूँ मैं सदा मुझे

सुख मिल न सकेगा

पर मेरा दुःख भी

हे प्रभु कटने वाला हो

और मरण जब आवे

टैब मेरी आंखों मैं

अश्रु न हों

मेरे होंठों मैं उजियाली हो।

ये पंक्तियाँ चंद्र कुंवर बर्त्वाल के समग्र जीवन को समझाने के लिया पर्याप्त हैं। ये पंक्तियाँ साधारण नहीं, कविता की संरचना और शब्द प्रयोग में एक गहरी अन्विति और संश्लिष्ट लिया हुई हैं सतही रूप में ये पंक्तियन जीवन विमुख, उदास या हारे हुआ जीवन का एक वर्नातामक चित्रभर हैं.जिसमें एक क्षिप्रा
गति है और रंग है -जो शब्दों के मध्यम से अभिव्यक्त हुआ है। ये इसी मंगलमयी पंक्तियाँ उत्कृष्ट काव्य की चरम अनुभुतियुं से निकली हैं जो विश्व के चेतानामन को आलोकित करने लगाती हैं ।

चंदर कुवर बर्थ्वाल को अपने असाधारण कवि होने का पुरा भंथा-छोटी उम्र मैं ही उन्हें सही साहित्य की परख हो गई थी.वह अपने कवि होने की महत्ता को समझाते थे .aपाने कृतित्व को समझाते थे- शायद अपने कृतित्व का आलोचक उनसे बार दूसरा कोई नहीं हो सकता- इससे भी वह भलीभांति परिचित थे-

मैं मर जाऊंगा पर मेरे

जीवन का आनंद नहीं।

झर जावेंगे पत्रकुसुम तरु

पर मधु-प्राण बसंत नहीं

जीवन मैं संतोष से लबरेज इन ध्वनिपूर्ण पंक्तियों मैं यथार्थ का अद्भुत सौन्दर्य पूरी चमक के साथ अपनी उपस्थिति को दर्ज करता है -"मेरा सब चलना व्यर्थ,हुआ, मैं न कुछ करने मैं समर्थ हुआ"। रोग शएय्या पर दस्तक देती

मृत्यु से उपजी छात्पताहत के मध्य "यम्और मृत्यु पर ढेर सारी कवितायन इस बात की पुष्टि करती हैं की क्रियाशील उर्जा का कीडा उनमें मौजूद था।

"मुझे ज्वाला मैं न डालो मैं न स्वर्ण , सुनार हूँ ।

मत जलाओ , मत जलाओ मैं न स्वर्ण ,सुनार हूँ ।"

मृत्युबोध पर ये पंक्तियाँ कोई असाधारण कवि ही रच सकता है ."यम्"उनकी अन्यतम कविताओं में से है .कुल २८ वसंत और २४ दिन देखे चंद्र कुंवर बर्थ्वाल ने .इतनी कम आयु पी-यानि शताब्दी का एक चौथी हिस्सा.इतनी कम जीवन अवधि में सम्पूर्ण जीवन और उसके रहस्यों को समझना उनकी असधार्ण प्रतिभा को ही प्रदर्शित करती है .वह प्रसाद,पन्त और निराला के समकालीन थे.उस दौर के बेहतरीन लेखकों,कवियों संगत और दोस्ती उन्हें नसीब थी- यह वह दौर था जब छायावाद अपने चरम उत्कर्ष पर था। एक तरह से छायावाद लगभग अपना कार्य निष्पादित कर चुका था । किंतु किसी रचनाकार का अपने अतीत से मुंह मोड़ना इतना आसान नहीं होता -चंद्रकुन्वर भी उससे अलग-थलग नहीं रह सके .उनको छायावाद के प्रमुख स्तम्भों का सानिध्य प्राप्त होने के बावजूद अपने को छायावादी कवि कहलाने से बचते रहने पर भी -वे चाहते तो उसी परम्परा का निर्वाह कर अपना sthan sunishchit कर सकते थे । परन्तु ,उनहोंने इस नहीं किया। दरअसल उन्हीं अपने इक नए रस्ते की तलाश थी । नई उर्वरा जमीं की तलाश थी । प्रगतिवाद और प्रयोगवाद की भूमिका उस समय बनाई जा रही थी उसमें भी अपनी कविता के पल्वित-पुष्पित होने की सम्भावनायें उन्हें ज्यादा नहीं दिख रही थीं । इसीलिए उन्होने छायावाद और प्रगतिवाद का सारतत्व तो ग्रहण किया अवश्य , किंतु अपना दृष्टिकोण उन सबसे अलग रखा ।...........................

2 टिप्‍पणियां:

शोभा ने कहा…

हरिसुमन जी
आप बहुत अच्छा लिखते है-
मैं न चाहता जीवनभर

मधुरस ही पीना

पर उतना पी लूँ

जिससे मधुमय अन्टर हो
इतने सरल शब्दों में आपने सुन्दर बात कह दी।

Amit K Sagar ने कहा…

bahut khub janab.
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